एक लेखक की ‘एनेटमी‘
प्रियंवद
(1)
यह काल की असीम निरन्तरता से दुत्कारे और तोड़ कर फेंके गए समय का एक निरर्थक टुकड़ा था।
समय के कुछ टुकड़े अक्सर निरर्थक होते हैं। यह इस लिए निरर्थक था कि इसमें फिर से कुछ नए देवता जन्म ले रहे थे। इन देवताओं के नए उपासक बन रहे थे। इनके लिए नए अनुष्ठान, नए ग्रंथ, नए पुरोहित और नयी उपासना पद्धतियाँ तय हो रहीं थीं। इनकी भाषा में एक बर्बर निर्लिप्तता और आत्ममुग्ध क्रूरता थी, जो पुरानी किताबों के शालीन और उदार नीति वचनों से अपनी नाभि नाल काट चुकी थी। समय के इस टुकडे़ में मनुष्य के जीवन का सबसे उद्देश्यपूर्ण और गरिमामय उपयोग उसकी बलि देने में था। इसके लिए पुरानी बलिवेदियों की साज—सज्जा और आकार बदला जा रहा था। समय के इस टुकड़े में नरमेध के निरन्तर बोले जा रहे अपवित्र मंत्र थे, जो सीलन भरे गर्भगृहों के अंधकारों में गूँजती हुयी भविष्यवाणियों के कुरूचिपूर्ण अर्थ खोल रहे थे। इस समय में इन वचनों का आचमन पवित्र और प्रश्नविहीन था। ये नए देवता, नए उपासक, नयी बलिवेदियाँ, नयी भविष्यवाणियाँ और इनके साथ, बहुत पहले नष्ट हो चुके अनेक स्वर्गों के बचे हुए बूढ़े जर्जर देवदूत, फिर एक नए स्वर्ग के रचे जाने का आश्वासन दे रहे थे। इस स्वर्ग में न ईश्वर था, न मृत्यु। मनुष्य को मुक्ति देने वाले दोनों बुर्ज ढहा दिए गए थे।
इस समय मे ,कहीं, कोई एक देश था।
हर देश की तरह इस देश इस देश का भी एक इतिहास था। इस इतिहास के एक सिरे पर मनोरोगी राजा थे, कामुक राजनीतिज्ञ थे, निरन्तर सुलगती लालसाओं में झुलस कर काले पड़ चुके, विकलांग और थूक उगलते पुजारी थे। पुरूषों से घृणा करने वाली स्त्रियां थीं, ऊँचे कूबड़ को रंगीन पटि्टयों में छुपाए जादूगर थे, अंधे देवताओं के दिए गए वरदान थे, चमगादड़ों का शिकार बनने की इच्छुक कुँआरी लड़कियाँ थीं। इस इतिहास के दूसरे सिरे पर चौराहों पर लोगों के अंदर चढ़ाई जाने वाली सूलियाँ थीं, काली, खुरदुरी दीवारों में हडि्डयों से खीचीं गयी खालें थीं, दर्द से ऐठीं, पराजित स्मृतियाँ थीं। इस इतिहास में यह सब कुछ बहुत पहले और बहुत तरीकों से अमर कर दिया गया था। इनकी सभ्यता की महानता सोने के पानी से लिख दी गयी थी। इतिहास और ‘महान सभ्यताओं‘ के बीच हमेशा किए गए असंख्य भद्दे समझौतों की तरह, यह भी एक भद्दा व घृणित समझौता था। देश में हर एक से उम्मीद की जाती थी कि वह इस महान सभ्यता के महान इतिहास को अगली पीढ़ी तक पहुँचाए।
इस देश में कहीं कोई एक गाँव था।
इस गाँव में कच्चे पपीते और कच्चे केले पकाने के कई गोदाम थे। इनकी महक में किनारे की नदी, उसके पार केे जंगल और उसके वृक्षों की फुनगियाँ डूबी रहती थीं। दिन में गाँव के निठल्ले कभी खरगोश और जंगली सुअर का शिकार करते, कभी किसी मरे हुए खच्चर को दफनाते और कभी दो सौ साल पुराने कहवाघर के बाहर बैठकर, वहाँ से गुजरने वाले नटों के करतब देखते थे। इस गांँव में बकरियाँ इन्सानों की तरह मुस्करातीं, आलसी मुर्गे ज्यादा खा कर छाती पर दुगना मांस चढ़ा लेते। चारों ओर पड़े सूखे से भागकर आए अनेक ऊँट इसकी नदी का पानी पी कर, किनारे पर लम्बी गर्दन टिकाए जमीन पर सोते रहते। पतली और टेढ़ी टांगों वाले कौव्वे उनके रोओं में फँसे कीड़े खाते रहते। इस गाँव की रातों में अक्सर कुछ आवाजें सुनायी देतीं। ये कभी खुर पटकते घोड़ों की होतीं, कभी पत्थरों को काटती छेनी की और कभी मुँह उठा कर देर तक रोते हुए भेड़ियों की होतीं। इन आवाजों में कई बार पोपले मुँह वाली बूढ़ी वेश्याओं की कराहें, कभी नंगी शाखों के बीच बदहवास भागती हवा, कभी विक्षिप्त भिक्षुओं की चीखें और कभी कामातुर चुम्बनों की आवाजें भी होतीं। ऐसी रातों में, कुछ निर्वासित आत्माएं काला लबादा ओढ़े, कतार में चलती हुयी, सर झुकाए, मुँह ढके हुए ईश्वर के व्यक्तिगत नर्क में प्रवेश करतीं।
इस गाँव में एक घर था।
घने पेड़ों के नीचे बनी कब्रों के पीछे वाली रेल की पटरियों के भी पार, यह घर, दुनिया के अन्धेरे घने जंगल में भटके हुए प्रेमियों को राह दिखाने के लिए, किसी जलते चिराग की तरह, धरती से ऊपर और अलग तरह से रखा हुआ था। इसके लोहे के छोटे सीखचों वाले दरवाजे के अंदर कुछ दूर तक कच्ची पगडंडी थी। उस पर चल कर, छह सीढ़ियों को चढ़ने के बाद इस दो मंजिले घर का दरवाजा था। दरवाजा ऊँचा और बलूत की लकड़ी का बना हुआ था। घर के चारों ओर अक्सर सूखी घास उगी रहती। गाँव के लोग जब चाहते इसे काट ले जाते। घर के अंदर जब भी जलती, सिर्फ एक पीली रोशनी जलती। घर के चारों ओर कच्ची सड़कों पर खच्चरों के दौड़ने से दोपहर भर धूल उड़ती, और रात भर इस धूल में टूटे हुए सूखे, कत्थई, भूरे पत्ते उड़ते। इसके टूटे हुए चार कंगूरों पर, जो कभी बिजली गिरने से चटक गए थे, भूखे गिद्ध, अपनी चौकन्नी और सुर्ख आँखों से चारों ओर पतली गर्दन घुमाते हुए, किसी सड़ती लाश की तलाश में बैठे रहते। गाँव के लड़के इन गिद्धों के मरने की प्रतीक्षा करते। इनके मरने के बाद लड़के इनकी खोखली हडि्डयों की बाँसुरी बनाते। रात को इन हडि्डयों के छेदों में हवा फूँक कर, खुशी से चीखने वाले गिद्ध की आवाज निकल कर अपनी सुरत इच्छुक प्रेमिकाओं को आने का संकेत देते। इस घर के चारों ओर काँटो वाले तार की बाड़ बनी थी। इस बाड़ को पार करके रात को जंगली भालू अंदर आ जाते। आलू या नींबू के पेड़ के नीचे गाड़ी गयी, मरी मछलियों की तलाश में जगह जगह कच्ची मिट्टी खोदते और कुछ न मिलने पर निराश और भूखे लौट जाते। निराशा, भूख और झुंझलाहट से भरे इन लौटते भालुओं के बाल अक्सर तार के काँटों में फँस कर टूट जाते। गाँव के हज्जाम इन बालों को बांध कर दाढ़ी में साबुन लगाने के लिए ब्रश की तरह इस्तेमाल करते। बारिश की बूँदें हर साल इस घर की पुरानी दीवारों में दबी गंध को जीवित कर देतीं। यह गंध ओक के बने ऊँचे कास्क में कुचल कर रखे गए अंगूरों की शराब जैसी होती। इस गंध के उठते ही, इस घर में सदियों पहले रहने वाले लोगों के प्रेत पेड़ों की शाखों, जमीन के नीचे या कब्रों से नाचते हुए बाहर निकल आते। इन प्रेतों के पास तब के संजोए अपने प्रेम, स्वार्थ, ईर्ष्याएं, भय, दुख, पराजय, नृत्य और उल्लास थे। ये सब भी प्रेतों के साथ नाचते।
इस घर में एक आदमी था।
इस आदमी को बहुत कम लोगों ने देखा था। दिखने से ज्यादा लोगों के पास उसके बारे में सूचनाएं थीं। जिन्होंने उसे कभी कभी देखा था, उनका कहना था कि उसका चेहरा किसी बच्चे के अच्छी तरह, पीटे गए नितम्ब की तरह है। वह साल भर गाजर का रस पीता है और खाँसता है। उसकी दोनों आँखों में मोतियाबिंद उतर आया है। जन्म से उसके आँसू सूखे हुए हैं, इसलिए वह हमेशा अपनी पलकें जल्दी जल्दी झपकाता रहता है, जिससे कि उसकी आँखों में हमेशा पानी भरा रहे। उसमेें किरकिराहट न हो। उसक चेहरे पर हमेशा पश्चाताप, बेबसी और बेनियाजी की मोटी सलवटें पड़ी रहती हैं। ऐसा शायद इसलिए है कि दूसरे शहर में बिताए बचपन में, वह हमेशा, चुपचाप, घर की चौखट पर बैठा बाहर नाचती कठपुतलियों को और अंदर मरती हुयी माँ को देखा करता था। उसका मुँह सड़े दाँतों से भरा है और आत्मा पराजित महत्वकांक्षाओं से। उसकी आत्मा का हर हिस्सा इस मुँह ढके ईश्वर से घृणा करता है।
कुछ दूसरे लोग, जो उसके घर के पास से अक्सर खच्चरों पर बैठ कर गुजरते थे, उन्होंने उसको अक्सर ऊपरी मंजिल की छोटी खिड़की की सलाखों से मुँह चिपका कर, घंटों बारिश की नाचती बूँदों को देखते हुए देखा था। उनका कहना था कि आसमानी बिजली की तरह उसमें चमक और चपलता है। किसी सत्य को प्रकट करने के लिए अक्सर उसके उत्तेजित और बेचैन आवेग, अपनी सम्पूर्ण आक्रामकता और पारदर्शिता के साथ उसके जीवन में कुछ ज्यादा ही हस्तक्षेप करते रहते हैं। शब्दों से अधिक वह शरीर की भंगिमाओं और क्रियाओं से अपने को व्यक्त करता है। उसके लिए जीवन सिर्फ कुछ मायावी सितारों का नृत्य है। संक्षेप में उसका जीवन ऐंठी हुयी भावनाओं, सूख चुकी उम्मीदों और खुरंडी चीखों के साथ कुछ कदम आगे बढ़ने और फिर लड़खड़ा कर उतने ही कदम पीछे लौट जाने की उबाऊ कहानी भर है। इस कहानी के सारे पात्र पथरा चुके है और उन्हें इस पत्थरपन से मुक्ति दिलाने वाला राजकुमार वासनाओं और लालसाओं में डूबा हुआ है। खुद को चेहरा ढँके ईश्वर का दलाल बताता हुआ वह आदमी अक्सर शहर की सड़कों और गलियों में यूं ही बेमकसद घूमता रहता है। तब उसके अंदर कोई इच्छा तक नहीं होती। बहुत ज़रूरी हो जाता है, तब ही उसके अंदर कोई इच्छा जागती है। यह इच्छा कभी प्रेम, सौन्दर्य और नैतिकता जैसी चीजों से जुड़ी नहीं होती, बल्कि यह उस सफेद फँफूद की तरह होती है जो पुरानी, सड़ी हुयी मसालेदार मछली के ऊपर झीनी पर्त की तरह चढ़ी रहती है।
इन बातों को कहने वालों के दुश्मन, जो गर्मियों की रातों में गाँव की सीमा पर बहने वाली नदी के गंधक वाले पानी के हिस्से में लेटे हुए, सुबह की लाली का इंतजार करते थे, उनका कहना था कि वह नींद से तब उठता है जब उसका जीवन उसकी सोयी आत्मा को आवाज देता है। या फिर तब, जब सर्दियों के ठंडे कोहरे के बीच, अतृप्त प्यास की तरह उगने की कोशिश करती नर्म धूप के टुकड़ों में कूदते हुए खरगोश की तरह, उसका जीवन कब्रों से भी गहरे अंधेरे में बेड़ियों से जकड़ी अपनी आत्मा को जगाता है। जागने के बाद हैरानी से वह कुछ देर चारों ओर देखता है, फिर जिसका वह खुद को दलाल बताता घूमता था, मुँह ढँके हुए उस ईश्वर की तरफ मुँह उठा कर बड़बड़ाता है ‘‘इस बार मैं तुम्हारा दिया जीवन जी रहा हूँ, पर अगली बार इंकार कर दूँगा‘‘।
जो लोग रात भर नदी मे लेटे रहने वालों से सहमत नही थे, और भट्ठी पर ताड़ और महुए की शराब बनाते थे, उनका और उस शराब को पीने वालों का कहना था कि वह हर साल ‘हिस्टीरिया‘ का जन्मदिन मनाता है, यह कह कर, कि यह कविता का शुद्धतम रूप और भावना की उच्चतम पराकाष्ठा है। ये लोग मानते थे कि वह प्रतिभा का अंतिम पीड़ित व बंदी, एक ऐसा अवशेष है, जिसकी चटकी दीवारों की दरारों में इतिहास की दीमकें और जिसके टूटे बर्ज पर रचनात्मकता के झूलते रहने वाले कुछ अनुत्तरित प्रश्न थे। वे कहते थे कि वह कुछ भी कर सकता है। वह प्रकृति और कला के युद्ध पर गीत लिख सकता है, असफलता के महत्व पर धारा प्रवाह बोल सकता है, कलंकित परम्पराओं में जीने वालों के लिए अवैध प्रेम की महानता की कक्षाएं ले सकता है। फ्रायड, धुंए, मृत्यु, ईश्वर और कामसुख के बीच अनैतिक संबध स्थापित कर सकता है।
जो कभी उसके बहुत पास से गुजरे थे, इतने पास से कि उसके हाथोें के रोओं का रंग देख सकते थे, उनका मानना था कि वह सिर्फ और सिर्फ लिखता है। उसके अंदर शब्द और विचार लय में निरन्तर उठते गिरते रहते हैं। रचना को जन्म देने से पहले उसकी बेचैन आत्मा में इनका विलक्षण नृत्य चलता रहता है। जब ऐसा होता है, तब ग्रीक दार्शनिकों की तरह एक लम्बा चोगा पहने, नंगे पाँव, दाढ़ी बढ़ाए वह शहर की सड़कों, वेश्यालयों, कहवाघरों, मुर्दाघाटों, उपासना स्थलों और विरोध प्रदर्शनों में महीनों घूमता रहता है। जब उसके अंदर यह नृत्य थम जाता है, और उसके शब्द और विचार शिथिल पड़ जाते हैं, तब वह कलम उठाता है और एक नयी रचना को जन्म देता है। कुल मिला कर गाँव वालों के लिए वह आदमी एक अव्याख्यायित रहस्य था। अप्रतीक्षित प्रेम था। अदमित वासनाओं और अचेतन विचारों का नक्षत्र पुँज था जो उसके स्वत्व और व्यक्तित्व की संम्पूर्णता, एकाग्रता, गरिमा और बुनावट को अपने मायावी रूपों से निरन्तर जर्जर करता रहता था।
इस आदमी के अंदर सचमुच बहुत से विचार थे।
ये विचार हमेशा आपस में लड़ते हुए चीखते रहते थे। वह हमेशा इनसे परेशान रहता था। इनके कोलाहल से मुक्ति चाहता था। पर कैसे, यह उसे नही पता था। इसे जानने की कोशिश में, वह खुद कभी अविराम नृत्य करता, कभी खुद अथक चीखता, कभी पूरी रात खाली सड़कों पर वहशियों की तरह घूमता, कभी शराब में डूब कर एक औरत से दूसरी औरत के पास जाता। तब भी जब मुक्त नही होता, तब मान लेता कि इनसे मुक्ति संभव नहीं है। शायद इसलिए कि यह विक्षिप्तता की शुरूआत है या किसी बड़ी रचना के जन्म की भूमिका या जीवन की अनन्तता का प्रथम बोध या फिर मृत्यु के पहले चलने वाला लम्बा, अनिवार्य पीड़ा का आलाप। जब एक ऋ़तु से दूसरी ऋतु तक वह इसी तरह सोचता और जीता और मुक्त नहीं हो पाता, और उसका शरीर और मन दोनों टूट कर थक जाते, तब उसके चारों ओर एक निर्वात बनना शुरू होता। अपनी चमकती आँखों और मुलायम सुनहरे रोओं के साथ, एक सुख धीरे धीरे उसके उस निर्वात में धँसने लगता। उसकी आँखें गीली हो जातीं। ‘आँसुओं से आत्मा में कीचड़ मत पैदा करो‘ एक बीमार, टूटी आवाज उसके कानों में फुसफुसाती। उसके आँसू बहने लगते। ‘इज देयर मिज़री लौफ्टियर दैन मी‘ वह देर तक बचपन में मां से सुनता आया गीत गुनगुनाता और फिर गहरी शांति में डूबा कई दिनों तक सोता रहता।